दृष्टिकोण एवं मूल्य

भूमिका

1. यह न्यास, न्यास अधिनियम के अन्तर्गत एक स्वायत्त संगठन के रूप में पूरे देश में प्राच्य विद्या संस्कृत (वैदिक एवं लौकिक) के विकास-प्रोन्नयन हेतु संस्कृत भाषा एवं विज्ञान के संरक्षण, प्रसार तथा विकास और इसके सभी पक्षों की शिक्षा हेतु भारत सरकार, शिक्षा मंत्रालय द्वारा स्थापित 1956 में संस्कृत आयोग की विभिन्न संस्थुतियों के प्रभावी कार्यान्वयन हेतु सक्रिय भूमिका निर्वहन करने में दक्ष होगी।

2. गुरुकुल परम्परा के साथ सामयिक आधुनिक-शिक्षा, प्रशिक्षण एवं अध्ययन पद्धति के अनुकूल वेदों में गुप्त-ज्ञान-विज्ञान को उच्च स्तरीय अनुसंधान कर वर्तमान शिक्षा के साथ भविष्य की पीढ़ी हेतु परम् उपयोगी बनाकर प्रस्तुत करना है।

3. यह न्यास समाज के सभी लोगों में सहज और समान रूप से शिक्षा-संस्कार प्रदान करेगा।

4. यह न्यास समाज की अन्तिम पंक्ति में खड़े उन तमाम लोगों को शिक्षा और संस्कार के माध्यम से समाज की मुख्य धारा के साथ जोड़ने का कार्य करेगा, जिससे सामाजिक समरसता और सौहार्द का वातावरण अक्षुण्ण रहे।

3. संस्था ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ की अवधारणा के साथ पीड़ित मानवता की सेवा में तत्पर रहते हुए विश्वकल्याण की भावना एवं राष्ट्र के चतुर्दिक विकास में अपनी सफल सहभागिता अर्पित करेगी।

न्यास का नामकरण एवं उद्देश्य

1. नामकरण - स्वामी चिदात्मन एक ऋषि कल्प, जिन्होंने वेदों की ऋचाओं का गवेषण एवं मंत्रों का गहन मन्थन करते हुए युग-जीवन हेतु कतिपय ऐतिहासिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व के उद्देश्यों की गुत्थी को सुलझाकर वैश्विक धरातल पर कार्यरूप में साकार किया है। जैसे—कुम्भ महापर्व के लुप्त आठ कुम्भ स्थलों को चिह्नित कर आदि कुम्भ स्थली सिमरिया धाम सहित आठों का पुनरुत्थान कार्य सम्पन्न किये। विस्मृत भारत का मौलिक स्वरूप, सनातन धर्म के प्रयोजन मूलक वेद–वर्णित व्यापकता को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के अनाविल फलक पर मानवता हेतु समर्पित करना। वेदों के पठन–पाठन एवं वैदिक ज्ञान के सूक्ष्म रहस्यों से व्यक्ति, समष्टि और सृष्टिगत सात्त्विक शान्ति मूलक बीज अंकुरित करना। ऐसे युगपुरुष महर्षि के नाम को न्यास के साथ प्रथम संयोजित किया गया है।

वेद–सामान्यता वेद विद् धातु से धृ प्रत्यय करने पर जिसका अर्थ भाव–कर्म–या करण गत–ज्ञान–ज्ञान का विषय, ज्ञेय पदार्थ और ज्ञान का साधन – तीनों होता है। संक्षेप: वेदों का अमृत वाक्, विराट मन का वह समष्टि ज्ञान है, जो अतीत-अनलीत से वर्तमान तक को परिभाषित करते हुए वैश्विक ज्ञान का अक्षय कोष बनकर विश्व पुस्तकालय के प्रथम ग्रन्थ रूप में विराजमान है।

विज्ञान–विज्ञान शब्द का सामान्य अर्थ किसी विषय के सिद्धान्तों का विवेचित व्यवस्थित ज्ञान, ज्ञानेन्द्रियों का समूह, ब्रह्म और आत्मा को एक मानने वाला सिद्धान्त आदि है।

वस्तुतः विज्ञान शब्द भारतीय चिन्तन के प्रारम्भिक काल से विवेचित प्रयुक्त है। इसके प्रमुख आचार्य अश्वघोष, सुभट्ट, मैत्रेय, नागार्जुन, द्वितीय शताब्दी आदि माने जाते हैं। किन्तु भौतिकी विज्ञान की चिन्तन धारा 1830 में पश्चिमी देशों से प्रारम्भ हुई, जो भौतिक पदार्थों के मूल भाव का गवेषण है। तथापि: वेद के साथ विज्ञान शब्द का न्यास में संयोजन का तात्पर्य है — उपर्युक्त विज्ञान लब्धित शास्त्रीय विज्ञान एवं पदार्थ विज्ञान भौतिकता के आधार पर वेदों का अध्ययन, अध्यापन एवं गवेषण।

2. अनुसंधान — शब्द से तात्पर्य है वेद वेदान्त सहित संस्कृत वाङ्मय, प्राकृत–पाली में वर्णित समस्त प्राच्य विषयों में व्याप्त वैज्ञानिक रहस्यों का गवेषण–अन्वेषण। अनुसंधान निरीक्षण एवं स्पष्ट प्रकाशन। न्यास — न्यास शब्द का तात्पर्य है – वेदादि सद्ग्रन्थों की ऐसी ज्ञानस्थली जहाँ नियमित रूप से निरन्तर सद्शास्त्रों का अध्ययन–अध्यापन, शिक्षण–प्रशिक्षण, गवेषण की धारा नियमित रूप से प्रवाहित रहे, ऐसी ज्ञान केन्द्रित न्यास, जहाँ से सर्वसामान्य जन को सहजता पूर्वक ज्ञान का उज्ज्वल प्रकाश प्राप्त होता रहे।

न्यास का उद्देश्य

न्यास में गुरुकुल परम्परा के अनुरूप संस्कृत वाङ्मय के उभय प्राच्य वैदिक एवं लौकिक विषयों — ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, कर्ममीमांसा, वेदान्त, गन्धर्व वेद, आयुर्वेद, स्थापत्य, काश्यप संहिता, भैषज्य संहिता, हारीत संहिता, माधव निधान संहिता, शार्ङ्गधर संहिता, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, वाग्भट्ट संहिता, भावप्रकाश संहिता, ऋग्वेद, प्रातिशाख्य, पुष्प सूत्र, अथर्ववेद, प्रातिशाख्य, आगम और तन्त्र, पुराण, स्मृति, उपनिषद, आरण्यक, ब्राह्मण ग्रंथ सहित अन्य रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, चैतन्यमहाप्रभु आदि प्राच्य ग्रंथों का अध्ययन–अध्यापन एवं इससे सम्बन्धित उच्चस्तरीय अनुसंधान जो ज्ञान–विज्ञान को रेखांकित करते हुए युग–संदर्भ के साथ भविष्य हेतु परउपयोगी सिद्ध हो सके।

वस्तुतः भारतीय ज्ञान–विज्ञान का उद्देश्य वस्तुओं की पहचान मात्र नहीं है; उसका उद्देश्य समस्त वस्तु की पहचान कर उनकी प्रत्यक्षित स्थितियों को अलग–अलग वर्गीकृत करते हुए उनमें संश्रिलष्ट अव्यय भाव का अन्वेषण करना है। वेद एक अनन्त आकाश है, इस आकाश में बहुतेरे ज्ञानी सृष्टि अपनी–अपनी शक्ति के अनुसार उड़ान भरते हैं।

श्रुति के नैसर्गिक तत्वों में निहित आधुनिक विज्ञान विधा के अनुरूप वैदिक मन्त्रों में वर्णित वैज्ञानिक रहस्यों का अध्ययन–अध्यापन, अनुसंधान एवं प्रकाशन कर भौतिक क्षेत्र में लोकोपयोगी सिद्ध करते हुए अपरोक्ष वेद में निहित विज्ञान के रहस्यों को वैश्विक पटल पर रेखांकित करना न्यास का उद्देश्य है। इसके निम्नांकित गुरुतर कार्य हैं.

1. शिक्षा एवं अनुसंधान हेतु अपेक्षित दुर्लभ प्राच्य विषयों जो समाज व राष्ट्रहित में अत्यन्त उपयोगी होते हुए भी पठन–पाठन की मुख्यधारा में नहीं हैं — वैसे ज्ञान–निधि विशिष्ट ग्रन्थों में व्याप्त चेतना–जिज्ञासा प्रधान शिक्षा सिद्धान्तों के साथ आधुनिक भौतिक विज्ञान के अनुपम संयोजन से ज्ञान–विज्ञान के क्षेत्र में एक विशिष्ट उपलब्धि वर्तमान एवं आनेवाली पीढ़ी को प्रदान करना है।

2. संस्कृत वाङ्मय के समस्त शाखाओं–क्षेत्रों में शोध कार्य की सुदृढ़ता करना; इस कार्य में मदद प्रदान, प्रोत्साहन और संयोजन करना, जिसमें शिक्षक–प्रशिक्षण, पाण्डुलिपि विज्ञान

3. ज्ञान की उन शाखाओं में प्रशिक्षण का प्रबंध करना जिन्हें न्यास उपयोगी और आवश्यक मानता हो।

4. विद्या के प्रचार-प्रसार और अभिवृद्धि हेतु शोध का प्रावधान करना।

5. न्यास की स्थापना प्रसिद्ध सिद्धाश्रम में हुई है, जहाँ वेदों के पाठ प्रतिदिन प्रातः एवं संध्या काल में नियमित रूप से होते हैं, यज्ञशाला की अग्नि अहर्निश प्रज्वलित रहती है। आश्रम की मूल प्रकृति — सत्य, प्रेम और करुणा है। न्यास में इस मूलगत प्राकृतिक निष्ठा की निरंतरता हेतु — शास्त्र वणित 'कुलपति' की परिभाषा — 'मुनीनां दशसाहस्रं योजनदानादि पोषणात्।

अध्याप्यायति विपश्चित्सं कुलपतिः स्मृतः। के अनुरूप इस न्यास के 'कुलपति' — दिव्य शक्ति पीठ सिद्धाश्रम के प्रधान पीठाधीश्वर पदेन कुलपति होंगे, जो न्यास के समग्र दायित्व वहन करने वाले होंगे।

6 . समाज के विकास में योगदान हेतु न्यास के बाहर लघुकाय संस्थाएं स्थापित कर अध्ययन का विस्तार करते हुए विभिन्न क्षेत्रीय गतिविधियों का सुव्यवस्थित एवं सुसंस्कृत करना।

7 . न्यास के मौलिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु विकासोन्मुख आवश्यक कार्यक्रमों का आयोजन करना।

8. पुस्तकालय को सुसंपन्न एवं संस्कृत के दुर्लभ ग्रंथों का संग्रह करना।

9. दुर्लभ पाण्डुलिपियों का संग्रह एवं उनका प्रकाशन करना।

10. विषयगत आवश्यक शोध प्रबंधों को संतोषजनक पूर्णता हेतु सुनिश्चित करते हुए निर्धारित अन्तर्वीक्षा/परीक्षा आयोजित कर, शोधकर्ताओं को उपाधियाँ/डिप्लोमा/प्रमाणपत्र प्रदान करना/करवाना।

11. फैलोशिप, छात्रवृत्तियाँ, पुरस्कार तथा पदकों की स्थापना एवं प्रदान करना।

12. दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रमों का संचालन करना।

13. कर्मकाण्ड-व्यवहारिक शिक्षा सत्र चलाना एवं परीक्षोत्तीर्ण छात्रों को प्रमाणपत्र/उपाधि प्रदान करना।

14. वर्ष में एक बार राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक सामयिक सन्दर्भित अथवा अन्य उपयोगी विषय पर संगोष्ठी/सेमिनार/मंथन/शिविर का आयोजन करना एवं प्रतिपादित विषयान्तरगत उपलब्ध तथ्यों को पत्रिका में प्रकाशित करना।

15. सामयिक उपयोगी एवं ज्वलन्त विषयान्तरगत पुस्तक-पुस्तिका पत्र एवं पत्रिका को प्रकाशित करना।

16. यह न्यास सर्वमंगला पीठ के अन्तर्गत दर्जनों संघ / संगठन / संस्थाएँ संचालित हैं, सर्वमंगला के तथाकथित समस्त संस्थाओं के साथ समन्वय को सुनिश्चित करते हुए एक-दूसरे के प्रति पूर्ण सहयोगात्मक आदान-प्रदान को ‘एक वृत्तगत फल द्रय न्याय’ के अनुरूप नीतिगत निर्णय एवं क्रिया-कलाप में संवाद-संबंध स्थापित करना। इसमें प्रमाद अथवा विसंगति अक्षय अपराध की श्रेणी में आयेगा।